रामाश्रय झा “रामरग” (1928- 2009)
विद्वान, वागयकार, शिक्षक आ मंच सम्पादक छथि।
मैथिली भाषामे श्री रामाश्रय झा “रामरंग” केर रचना।
१.राग विद्यापति कल्याण- एकताल (विलम्बित)
स्थाई- कतेक कहब गुण अहाँकेँ सुवन गणेश विद्यापति विद्या गुण निधान।
अन्तरा- मिथिला कोकिला किर्ति पताका “रामरंग” अहाँ शिव भगत सुजान॥
स्थायी - - सा रेग॒म॑प ग॒रेसा
ऽ ऽक ते ऽऽऽ क,कऽ
रे सा (सा), नि॒ध निसा –रे नि॒धप़ ध़नि सा सारे ग॒रे रेग॒म॑प –(म॑)
ह ब ऽ ऽऽ गु न ऽअ हां,ऽऽ केऽ ऽ सुव नऽ ऽऽऽऽ ऽ ग
प प धनि॒ धप धनिसां - -रे सांनि॒ धप (प)ग॒ रे,सा रेग॒म॑प ग॒, रेसा
ने स विऽ द्याप तिऽऽ ऽ ऽवि द्या गुन निधा न, क तेऽऽऽ क,क
अन्तरा पप नि॒ध निसां सांरें
मिथि लाऽ ऽऽ कोकि
सां – निसांरेंगं॒ रें सां रें सां रें नि सांरे नि॒ धप प (प) ग॒ रेसा
ला ऽ की ऽऽऽ तिं प ता ऽ ऽऽ का ऽऽ रा म रं ग अ
रे सासा ध़नि॒प़ध निसा -सा रेग॒म॑प - ग॒ सारे सा,सा रेग॒म॑प ग॒, रेसा
हां शिव भऽ,ग तऽ ऽसु जाऽऽऽ ऽ ऽ न ऽ, क ते ऽऽऽ क,कऽ
***गंधार कोमल, मध्यम तीव्र, निषाद व अन्य स्वर शुद्ध।
२.राग विद्यापति कल्याण – त्रिताल (मध्य लय)
स्थाई- भगति वश भेला शिव जिनका घर एला शिव, डमरु त्रिशूल बसहा बिसरि उगना भेष करथि चाकरी।
अन्तरा- जननी जनक धन, “रामरंग” पावल पूत एहन, मिथिलाक केलन्हि ऊँच पागडी॥
स्थाई-
रे
भ
सा गम॑ प म॑ प - - म॑ग॒ - रे सा सारे नि सा -, नि
ग तिऽऽ व श ऽ ऽ भे ऽ ला ऽ शि ऽ व ऽ ऽ जि
ध़ नि सा रे सा नि॒ – प़ ध़ नि॒ ध़ प़ – नि सा - - सा
न का ऽ घ र ऽ ऽ ए ऽ ला ऽ शि व ऽ ऽ ड
रे ग॒ म॑ प प – प नि॒ ध प म॑ प धनि सां सां गं॒
म रु ऽ त्रि शू ऽ ल ब स हा ऽ बि सऽ ऽऽ रि उ
रें सां नि रें सां नि॒ ध प म॑ प पनि॒ ध प - -ग -- रे
ग ना ऽ ऽ भे ऽ ष क र थि चाऽ ऽ कऽ ऽरी ऽऽ, भ
अन्तरा प
ज
प नि सां सां सां - - ध नि - ध नि नि सां रें सां -, नि
न नी ऽ ज न ऽ ऽ ऽ ऽ क ध न ध न ऽ, रा
नि सां – गं॒ रें सां सां नि – ध नि सां नि॒ ध प ग॒
म॑ प नि सां सां नि॒ ध प म॑ प पनि॒ ध प- -ग – रे
थि ला ऽ क के ल न्हि ऊँ ऽ च पाऽऽ गऽ ऽडी ऽऽ,भ
***गंधार कोमल, मध्यम तीव्र, निषाद दोनों व अन्य स्वर शुद्ध।
३.श्री गणेश जीक वन्दना
राग बिलावल त्रिताल (मध्य लय)
स्थाई: विघन हरन गज बदन दया करु, हरु हमर दुःख-ताप-संताप।
अन्तरा: कतेक कहब हम अपन अवगुन, अधम आयल “रामरंग” अहाँ शरण।
आशुतोष सुत गण नायक बरदायक, सब विधि टारु पाप।
स्थाई
नि
ग प ध नि सा नि ध प ध नि॒ ध प म ग म रे
वि ध न ह र न ग ज ब द न द या ऽ क रु
ग ग म नि॒ ध प म ग ग प म ग म रे स सा
ग रु ऽ ह म र दु ख ता ऽ प सं ता ऽ प ऽ
अन्तरा
नि रें
प प ध नि सां सां सां सां सां गं गं मं गं रें सां –
क ते क क ह ब ह म अ प न अ व गु न ऽ
रे
सां सां सां सां ध नि॒ ध प ध ग प म ग ग प प
अ ध म आ य ल रा म रे ऽ ग अ हां श र ण
ध प म ग म रे सा सा सा सा ध - ध नि॒ ध प
आ ऽ शु तो ऽ ष सु त ग ण ना ऽ य क व र
धनि संरें नि सां ध नि॒ ध प पध नि॒ ध प म ग म रे
दाऽ ऽऽ य क स ब बि ध टाऽ ऽ रु ऽ पा ऽ ऽ प
४. मिथिलाक वन्दना
राग तीरभुक्ति झपताल
स्थाई: गंग बागमती कोशी के जहँ धार, एहेन भूमि कय नमन करूँ बार-बार।
अन्तरा: जनक यागवल्क्ष्य जहँ सन्त विद्वान, “रामरंग” जय मिथिला नमन तोहे बार-बार॥
स्थाई
रे – ग म प म ग रे – सा
गं ऽ ग ऽ बा ऽ ग म ऽ ती
प
सा नि ध़ – प़ नि नि सा रे सा
को ऽ शी ऽ के ज हं धा ऽ र
सा
म ग रेग रे प ध म पनि सां सां
ए हे नऽ ऽ भू ऽ मि कऽ ऽ य
प
सां नि प ध (ध) म ग रे सा सा
न म न क रुँ बा ऽ र बा र
अन्तरा
प पध म – प नि नि सां – सां
ज नऽ क ऽ ऽ या ग्य व ऽ ल्क
रें रें गं – मं मं गं रें – सां
ज हं सं ऽ त वि ऽ द्वा ऽ न
ध प
सां नि प ध म प नि सां सां सां
रा म रं ऽ ग ज य मि थि ला
प
सां नि प ध (ध) म ग रे सा सा
न म न तो हे बा ऽ र बा र
५. श्री शंकर जीक वन्दना
राग भूपाली त्रिताल (मध्य लय)
स्थाई: कतेक कहब दुःख अहाँ कय अपन शिव अहूँ रहब चुप
साधि।
अन्तरा: चिंता विथा तरह तरह क अछि, तन लागल अछि व्याधि,
“रामरंग” कोन कोन गनब सब एक सय एक असाध्य॥
स्थाई
प ग ध प ग रे स रे स ध सा रे ग रे ग ग
क ते क क ह ब दुः ख अ हाँ कय अ प न शि व
ग ग – रे ग प ध सां पध सां ध प ग रे सा –
अ हूँ ऽ र ह ब चु प साऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ धि ऽ
अन्तरा
प ग प ध सां सां – सां सां ध सां सां सां रें सां सां
चिं ऽ ता ऽ वि था ऽ त र ह त र ह क अ छि
सां सां ध - सां सां रें रें सं रे गं रें सां – ध प
त न ला ऽ ग ल अ छि व्या ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ धि ऽ
सां – ध प ग रे स रे सा ध स रे ग रे ग ग
रा ऽ म रं ऽ ग को न को ऽ न ग न ब स ब
ग ग ग रे ग प ध सां पध सां ध प ग रे सा –
ए क स य ए ऽ क अ साऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ध्य ऽ
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